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बुधवार, 21 अप्रैल 2010

मुक्तक / चौपदे ------------'सलिल'

मुक्तक / चौपदे

 
विश्व को दीपक मिला तो, चाँदनी की चाह की.
चाँदनी ने पर कहाँ कब किसी की परवाह की..
पूर्णिमा में चाँद के सँग की 'सलिल' अठखेलियाँ-
अमावस में चाँद बेचारे ने बेबस आह की..

साहित्य की आराधना आनंद ही आनंद है.
काव्य-रस की साधना आनंद ही आनंद है.
'सलिल' सा बहते रहो, सच की शिला को फोड़कर.
रहे सुन्दर भावना आनंद ही आनंद है. 
 
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 ll नव शक संवत, आदिशक्ति का, करिए शत-शत वन्दन ll
 ll श्रम-सीकर का भारत भू को, करिए अर्पित चन्दन ll
 ll   नेह नर्मदा अवगाहन कर, सत-शिव-सुन्दर ध्यायें ll
 ll सत-चित-आनंद श्वास-श्वास जी, स्वर्ग धरा पर लायें ll
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दिल को दिल ने जब पुकारा, दिल तड़प कर रह गया.
दिल को दिल का था सहारा, दिल न कुछ कह कह गया.
दिल ने दिल पर रखा पत्थर, दिल से आँखे फेर लीं-
दिल ने दिल से दिल लगाया, दिल्लगी दिल सह गया.
 
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कर न बेगाना मुझे तू, रुसवा ख़ुद हो जाएगा.
जिस्म में से जाँ गयी तो बाकी क्या रह जाएगा?
बन समंदर तभी तो दुनिया को कुछ दे पायेगा-
पत्थरों पर 'सलिल' गिरकर व्यर्थ ही बह जाएगा.
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कौन किसी का है दुनिया में. आना-जाना खाली हाथ.
इस दरवाजे पर मय्यत है उस दरवाजे पर बारात.
सुख-दुःख धूप-छाँव दोनों में साज और सुर मौन न हो-
दिल से दिल तक जो जा पाये 'सलिल' वही सच्चे नगमात.
 
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हमने ख़ुद से करी अदावत, दुनिया से सच बोल दिया.
दोस्त बन गए दुश्मन पल में, अमृत में विष घोल दिया.
संत फकीर पादरी नेता, थे नाराज तो फ़िक्र न थी-
'सलिल' अवाम आम ने क्यों काँटों से हमको तोल दिया?
  
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मुंबई पर दावा करते थे, बम फूटे तो कहाँ गए?
उसी मांद में छुपे रहो तुम, मुंह काला कर जहाँ गए.
दिल पर राज न कर पाए, हम देश न तुमको सौंपेंगे-
नफरत  फैलानेवालों  को  हम  पैरों  से  रौंदेंगे.
 
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मुक्तक : दोस्त
 
दोस्त हैं पर दोस्ती से दूर हैं.
क्या कहें वे आँखें रहते सूर हैं.
'सलिल' दुनिया के लिए वे बोझ हैं-
किंतु अपनी ही नजर में नूर हैं.
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दोस्त हो तो दिल से दिल मिलने भी दो.
निकटता के फूल कुछ खिलने भी दो.
सफलता में साथ होते सब 'सलिल'-
राह में संग एडियाँ छिलने भी दो.
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दोस्त से ही शिकवा-शिकायत क्यों है?
दोस्त को ही हमसे अदावत क्यों है?
थाम लो हाथ तो ये दिल भी मिल ही जायेंगे-
तब ही पूछेंगे 'सलिल' हममें सखावत क्यों है?
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उफ़ ये नाज़ुक सा कलेजा, और चेहरा माहताब.
दोस्त बनकर जलाते हो जैसे निकला आफ़ताब.
आह भी भरते हैं हम तो वाह वो कहने लगे-
उनके आगे 'सलिल' जाने क्यों हुआ है लाजवाब?
 
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वादा करके भूल गए जो अपने प्यारे दोस्त वही.
समय व्यर्थ ही गवां रहे जो अपने प्यारे दोस्त वही.
'सलिल' पीठ में छुरा भोंकना और पूछना दिल का हाल-
अपनी फितरत बता रहे जो अपने प्यारे दोस्त वही.
 
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पुस्तकें मिलने-मिलाने का बहाना हो गयीं.
आए कासिद या न आए वो फसाना हो गयीं.
दूरदर्शन या कि अंतरजाल में दूरी 'सलिल'-
जो चली पुस्तक लिए वो ख़ुद निशाना हो गयी.
 
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हुस्न-ओ-इश्क की बातें न करो ऐ जानम!.
ताज में अब न मोहब्बत के फूल खिलते हैं.
बोलते बम रहे शिव जी के भक्त आज तलक-
ताज में आजकल शव और बम ही मिलते हैं.
 
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बहाते हैं जो लहू रोज़ बेकसूरों का.
लहू उनका भी रोज नालियों में बहता है.
जो टूटता है उसे फ़िर बना लेता है 'सलिल'-
जालिमों का कभी नामो-निशान न रहता है.
 
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मैं ही नहीं, तू भी तो मेरा तलबगार है.
तू जिसका प्यार है, वही तेरा भी प्यार है.
गर सच नहीं तो जिंदगी की धार मोड़ दे-
तुझको न चाहे जो उसे तू हँस के छोड़ दे.
 
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न आँसू बहाओ, न नज़रें झुकाओ.
गमे-इश्क को हँस के दिल से लगाओ.
जो चाहा न पाया, 'सलिल' इसका गम क्यों?
जो पाया है उसकी खुशी तो मनाओ.
 
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जलाओ शमा, रात सारी जगो तुम.
सितारों से आगे हमेशा रहो तुम.
खुदा की है नेमत 'सलिल' साँस तेरी-
मोहब्बत हमेशा उसी से करो तुम.
 
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जो बेकस हैं, उनको गले से लगाओ.
हैं नादां जो, उनको भी दाना बनाओ.
न जीने का मकसद बतायेगा कोई-
'सलिल' ख़ुद ही औरों के तुम काम आओ.
 
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जिसकी बाँहों में रहे तू, जो तेरी बाँहों में हो.
यह जरूरी तो नहीं है वो तेरी चाहों में हो.
मंजिलें हों कहीं भी, हरगिज न छोडेंगे 'सलिल'-
यह जरूरी तो नहीं मंजिल तेरी राहों में हो.
 
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न सूरज या चंदा मुझे तुम बनाते.
सितारों सा मंदा मुझे क्यों बताते.
दुआ दे रहे तो भी कंजूसी करके-
'सलिल' यार सच्चे ही ऐसे सताते.
 
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ख्वाब में आती रहो तुम सच में मत आना.
वस्ल के सपने दिखा गाती रहो गाना.
दाल-रोटी कमाने में प्यार होगा गुम-
'सलिल' रहकर दूर ही तुम मन मेरे भाना
 
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लम्हा-लम्हा याद तुम्हारी, गम को दूर हटाती है.
खुशबू अगरबत्तियों की ज्यों, सांसों को महकाती है.
जग ने चाहा भूलूँ तुमको, बरबस याद आ रही हो-
'सलिल' थपकियाँ दे बच्चे को माँ ही गोद खिलाती है.
 
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पास रहीं तो तनिक न सोचा, कभी दूर हो जाओगी.
दूर गयीं तो क्या मालूम था और निकट हो जाओगी.
माँ तुम बिन मैं हुआ अधूरा, दुनिया लगती बेमानी.
बस इतना ही मुझे बता दो कैसे-कब मिल पाओगी?
 
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पहले बेहद मन भाती थी लेकिन अब चुभती है धूप.
हुस्न-इश्क रुचते थे पहले लेकिन अब न सुहाता रूप.
याद तुम्हारी बतलाती है, मैं अब निपट अकेला हूँ-
रंक हुआ है 'सलिल' बिचारा, माँ के आँचल में था भूप.
 
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मुझे तुझसे मिलने की सजा, जब जो मिलेगी कुबूल है.
तेरी रहगुजर का शूल हर मुझे लग रहा है कि फूल है,
तन दो हमारे भले ही हों पर मन 'सलिल'  हैं एक ही-
जुदा हमको करना जो चाहते, नहीं जानते कि भूल है.
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अपने सपने पूरे होंगे साथ मेरा तुम दो न दो
या सुख-दुःख में साथ रहो या दरवाजे से रुखसत हो.
कोशिश के शैदाई हैं हम नहीं नतीजों की चिंता-
ऊपरवाले! आख़िर दम तक नहीं 'सलिल' को फुर्सत हो.

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बेवफाई का गिला तज, ख़ुद वफ़ा पहले करो.
फ़िक्र नुकसानों की छोडो, कुछ नफा पहले करो.
'सलिल' कोशिश पर भरोसा करो मत पीछे हटो-
शक-शुबह, शिकवे-शिकायत को दफा पहले करो.
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इंसां है तो डूब रहा क्यों? अपनी मन-मर्जी से तैर.
नहीं किसी से व्यर्थ दोस्ती, नहीं किसी से नाहक बैर.
भाग्य विधाता है तू अपना, हाथों से लिख दे तकदीर-
तेरे दुश्मन तुझसे माँगें अपनी-अपनी जां की खैर. 
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नदी वही जो प्यास बुझाये, बिना मोल देकर पानी.
वतन वही जो गले लगाये,  माफ़ कर सके नादानी.
पंछी वह जो ख़ुद भूखा रह भरता है चूजों का पेट-
'सलिल' सिर्फ़ इंसान बना रह, हर इंसां है लासानी.
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अंधेरों का-उजालों का मेल होती जिंदगी.
खुशी-गम का सिलसिला है खेल होती जिंदगी.
कभी रुकती ही नहीं है. यह निरंतर चल रही-
'सलिल' हे पल नयेपन का मेल होती जिंदगी.
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तू अपनी तकदीर बदल दे, मौसम की कुछ फ़िक्र न कर.
जो जाकर फ़िर लौट न आयें, ऐसों को तू मित्र न कर.
साथ छोड़ दे अँधियारे में जो वह साया होता है-
'सलिल' साथ कर इंसानों का, परछाईं की फ़िक्र न कर.
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खन-खन, छम-छम तेरी आहट, हर पल चुप रह सुनता हूँ.
आँख मूँदकर, अनजाने ही तेरे सपने बुनता हूँ.
छिपी कहाँ है मंजिल मेरी, आकर झलक दिखा दे तू-
'सलिल' नशेमन तेरा, तेरी खातिर तिनके चुनता हूँ.
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बादलों की ओट में महताब लगता इस तरह
छिपी हो घूँघट में ज्यों संकुचाई शर्मीली दुल्हन.
पवन सैयां आ उठाये हौले-हौले आवरण-
'सलिल' में प्रतिबिम्ब देखे, निष्पलक होकर मगन.
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भर रंग-गुलाल, उठा लियो थाल, चले बृज ग्वाल, सुनावत फागें.
आकुल व्याकुल श्याम 'सलिल' संग, दाऊ-कन्हैया को कर आगे.
गुपियन लै पिचकारी चलावें, रोके रुकें नहीं, धूम मचावैं.
युग्म लखें विधि-हरि-हर औचक, नारद नाचें, वीणा सुनावें.
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जो दूर रहते हैं वही तो पास होते हैं.
जो हँस रहे, सचमुच वही उदास होते हैं.
सब कुछ मिला 'सलिल' जिन्हें अतृप्त हैं वहीं-
जो प्यास को लें जीत वे मधुमास होते हैं.
पग चल रहे जो वे सफल प्रयास होते हैं
न थके रुक-झुककर वही हुलास होते हैं.
चीरते जो सघन तिमिर को सतत 'सलिल'-
वे दीप ही आशाओं की उजास होते है.
जो डिगें न तिल भर वही विश्वास होते हैं.
जो साथ न छोडें वही तो खास होते हैं.
जो जानते सीमा, 'सलिल' कह रहा है सच देव!
वे साधना-साफल्य का इतिहास होते हैं  

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भावनाओं औ' कामनाओं का जब-जब हाथ मिला.
तब-तब ही मन के उपवन में कविता-सुमन खिला.
दिग्-दिगंत को किया सुवासित, चहक रहे मन-प्राण.
'सलिल' महक ने आस-प्यास को पल में दिया मिला.
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स्वाधीनता दिवस पर-
मुक्तक
आचार्य संजीव 'सलिल'
भारत माता मुक्तिदायिनी गोदी में भगवान खिलाती.
लोरी सुना राम-कान्हा को, प्रेमपूर्वक शयन कराती.
अगणित संतानें सब जग में 'वन्दे मातरम' बोल रही हैं-
स्वर्ग से सुन्दर बाँकी-झाँकी, अँखियाँ देख धन्य हो जातीं..
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देश इष्ट ईमान धर्म रब देव खुदा ईश्वर है अपना.
पथ पग पथिक लक्ष्य साधन शुचि, साध्य-साधना, सच औ' सपना.
श्वास-आस-परिहास, हर्ष-दुःख, मिलन-विरह वात्सल्य-भक्ति भी.
देश-प्रेम को नाप सके जो 'सलिल' न जग में अब तक नपना.
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लेश न संशय शेष, देश हित जीना ही अपनी परिपाटी.
नेत्रहीन होकर भी शर-धनु ले दुश्मन की गर्दन काटी.
सवा लाख से एक लड़े पर हार न हमने रण में मानी-
सबल-प्रबल अरिदल ने बारंबार समर में धूलि चाटी.
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जब हम आपस में टकराए, तभी शत्रु ने लाभ उठाया.
बार-बार जीता-छोडा पर उसने मौका नहीं गँवाया.
आँख फोड़कर क़ैद किया, भारत माता को रौंदा-लूटा.
जब-जब एक हुए अरि हारा, पद तल मस्तक विवश झुकाया..
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नीति धर्म सत् शील न त्यागा, प्राण  दिए पर तजा नहीं रण.
घास-तृणों की रोटी खायी, किंतु निभाया था अपना प्रण.
सिरहाने पर सांप सदृश भय अरि को होता देख स्वप्न में-
देख प्रताप शक्ति थर्राता था दिल्लीश्वर अकबर प्रति क्षण.
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निज गृह के अंतर्विरोध मिल-बैठ हमें सुलझाने होंगे.
जन-हितकारी नियम-कायदे बना काम में लाने होंगे.
काँटे-कंकर बीन बाग़ से, श्रम-सीकर से करें सिंचाई-
कैक्टस हटा नीम-तुलसी के बिरवे हमें लगाने होंगे..
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मातृभूमि की रज-चन्दन का, मस्तक तिलक लगाना होगा.
मातृभूमि की चरण-वन्दना कर जन-गण-मन गाना होगा.
मजहब, पन्थ, रिलीजन कुछ हो, राष्ट्र-धर्म अपनाना होगा-
राष्ट्र हेतु निज प्राण दाँव पर लगा शीश कटवाना होगा..
rachnakar
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स्वाधीनता दिवस पर-
मुक्तक
आचार्य संजीव 'सलिल'
राष्ट्र जमीं का महज न टुकडा, यह आस्था-विश्वास हमारा.
तीर्थ, धर्म, मंदिर, मस्जिद, मठ, गिरजा, देवालय, गुरुद्वारा.
भाषा-भूषा-भेष भिन्न हैं, लेकिन ह्रदय भिन्न मत मानो-
कोटि-कोटि हम मात्र एक हैं, 'जय भारत माँ' सबका नारा.
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सत्ता और सियासत केवल साधन, साध्य न इनको मानो.
जनहित-राष्ट्रोत्थान एक ही लक्ष्य अटल अपना पहचानो. .
संसद और विधानसभा में वाग्वीर जो पहुँच गए हैं-
ठुकरा उनको, जन-सेवक चुन, जनगण की जय निश्चय जानो..
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देव, खुदा, रब, गौड, ईश्वर,  गुरु, ऋषि भारत की संतान.
भारत जग में सबसे ज्यादा पावन, सबसे अधिक महान.
मंत्र, ऋचाएँ, श्लोक, आरती, आयत, प्रेयर औ' अरदास.
वन्दन-अर्चन करें राष्ट्र का, 'सलिल' सतत का र्गौरव गान.
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संसद मंदिर लोकतंत्र का, हुल्लड़ जनगण का उपहास.
चला गोलियां मानव-द्रोही फैलाते नृशंस संत्रास.
मूक रहे गर इन्हें न रोका, तो अपराधी हम होंगे-
'सलिल' सत्य यह, क्षमा न हमको देगा किंचित भी इतिहास.
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'बाजी लगा जान की, रोको आतंकी-हत्यारों को.
असफल हुआ सुरक्षा बल, क्यों मारा ना गद्दारों को?'
कहते जो नेता, सेना में निज बेटे पहले भेजें-
देश बचाते जान गँवाकर, नमन सिपहसालारों को..
anubhooti
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ज़िंदगी में इतनी भी जगमगाहट न हो
अँधेरा जब आये तो आहट न हो.
अँधेरे उजालों में तब्दील हों-
केवल उजालों की चाहत न हो..
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हरेक दिल की बयानी है.
सुबह लगती सुहानी है.
साँझ होती हसीं-दिलकश-
निशा पुरनम कहानी है..
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समय बदला तो समय के साथ ही प्रतिमान बदले.
प्रीत तो बदली नहीं पर प्रीत के अनुगान बदले.
हैं वही अरमान मन में, है वही मुस्कान लब पर-
वही सुर हैं वही सरगम 'सलिल' लेकिन गान बदले..

रूप हो तुम रंग हो तुम सच कहूँ रस धार हो तुम.
आरसी तुम हो नियति की प्रकृति का श्रृंगार हो तुम..
भूल जाऊँ क्यों न खुद को जब तेरा दीदार पाऊँ-
'सलिल' लहरों में समाहित प्रिये कलकल-धार हो तुम..

नारी ही नारी को रोके इस दुनिया में आने से.
क्या होगा कानून बनाकर खुद को ही भरमाने से?.
दिल-दिमाग बदल सकें गर, मान्यताएँ भी हम बदलें-
'सलिल' ज़िंदगी तभी हँसेगी, क्या होगा पछताने से?
*
ममता को समता के पलड़े में कैसे हम तौल सकेंगे.
मासूमों से कानूनों की परिभाषा क्या बोल सकेंगे?
जिन्हें चाहिए लाड-प्यार की सरस हवा के शीतल झोंके-
'सलिल' सिर्फ सुविधा देकर साँसों में मिसरी घोल सकेंगे?
*
मौन वह कहता जिसे आवाज कह पाती नहीं.
क्या क्षितिज से उषा-संध्या मौन हो गाती नहीं.
शोरगुल से शीघ्र ही मन ऊब जाता है 'सलिल'-
निशा जो स्तब्ध हो तो क्या तुम्हें भाती नहीं?
*
इन्तिज़ार को मिला है इन्तिज़ार ही.
मेहनत का सिला मिला है कुछ-कुछ उधार भी.
फूलों की थी तलाश भले शूल ही मिले-
कुछ बिन किये 'सलिल' क्यों आशा बहार की?

खतरा बड़ा या खतरी इसे कौन बताये.
सब शोक हर अशोक से किस्मत ही मिलाये.
हर जीव जो संकेत समझ ले वही संजीव-
जो 'सलिल' वो मुट्ठी में कहो किस तरह आये?

दिल लगाकर दिल्लगी हमने न की.
दिल जलाकर बंदगी तुमने न की..
दिल दिया ना दिला लिया, बस बात की-
दिल दुखाया सबने हमने उफ़ न की..