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बुधवार, 29 दिसंबर 2010

बिदाई गीत: अलविदा दो हजार दस... संजीव 'सलिल


बिदाई गीत:


अलविदा दो हजार दस...

संजीव 'सलिल'
*
अलविदा दो हजार दस
स्थितियों पर
कभी चला बस
कभी हुए बेबस.
अलविदा दो हजार दस...

तंत्र ने लोक को कुचल
लोभ को आराधा.
गण पर गन का
आतंक रहा अबाधा.
सियासत ने सिर्फ
स्वार्थ को साधा.
होकर भी आउट न हुआ
भ्रष्टाचार पगबाधा.
बहुत कस लिया
अब और न कस.
अलविदा दो हजार दस...

लगता ही नहीं, यही है
वीर शहीदों और
सत्याग्रहियों की नसल.
आम्र के बीज से
बबूल की फसल.
मंहगाई-चीटी ने दिया 
आवश्यकता-हाथी को मसल.
आतंकी-तिनका रहा है
सुरक्षा-पर्वत को कुचल.
कितना धंसेगा?
अब और न धंस.
अलविदा दो हजार दस...
 
*******************


शुभाकांक्षा :

विनय यही है आपसे सुनिए हे सलिलेश!

रहें आपके द्वार पर खुशियाँ अगिन हमेश..

नये वर्ष में कट सकें भव-बाधा के पाश.

अँगना में फूलें 'सलिल' यश के पुष्प पलाश.. 

 ***********

नव वर्ष पर नवगीत: महाकाल के महाग्रंथ का --संजीव 'सलिल'

नव वर्ष पर नवगीत: 

महाकाल के महाग्रंथ का --

संजीव 'सलिल'

*
महाकाल के महाग्रंथ का

नया पृष्ठ फिर आज खुल रहा....

*
वह काटोगे,

जो बोया है.

वह पाओगे,

जो खोया है.

सत्य-असत, शुभ-अशुभ तुला पर

कर्म-मर्म सब आज तुल रहा....
*
खुद अपना

मूल्यांकन कर लो.

निज मन का

छायांकन कर लो.

तम-उजास को जोड़ सके जो

कहीं बनाया कोई पुल रहा?...

*
तुमने कितने

बाग़ लगाये?

श्रम-सीकर

कब-कहाँ बहाए?

स्नेह-सलिल कब सींचा?

बगिया में आभारी कौन गुल रहा?...

*

स्नेह-साधना करी

'सलिल' कब.

दीन-हीन में

दिखे कभी रब?

चित्रगुप्त की कर्म-तुला पर

खरा कौन सा कर्म तुल रहा?...

*
खाली हाथ?

न रो-पछताओ.

कंकर से

शंकर बन जाओ.

ज़हर पियो, हँस अमृत बाँटो.

देखोगे मन मलिन धुल रहा...

**********************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

देहावसान : वयोवृद्ध शिक्षाविद-अर्थशास्त्री प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव -संजीव वर्मा 'सलिल'

देहावसान : वयोवृद्ध शिक्षाविद-अर्थशास्त्री प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव 

  -संजीव वर्मा 'सलिल'

बिलासपुर, छत्तीसगढ़ २८.११.२०१०. स्थानीय अपोलो चिकित्सालय में आज देर रात्रि विख्यात अर्थशास्त्री, छत्तीसगढ़ राज्य में महाविद्यालायीन शिक्षा के सुदृढ़ स्तम्भ रहे अर्थशास्त्र की ३ उच्चस्तरीय पुस्तकों के लेखक, प्रादेशिक कायस्थ महासभा मध्यप्रदेश के पूर्व प्रांतीय अध्यक्ष रोटेरियन, लायन प्रो. सत्य सहाय का लम्बी बीमारी के पश्चात् देहावसान हो गया. खेद है कि छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार आपने प्रदेश के इस गौरव पुरुष के प्रति पूरी तरह अनभिज्ञ तथा असावधान रही. वर्ष १९९४ से पक्षाघात (लकवे) से पीड़ित प्रो. सहाय शारीरिक पीड़ा को चुनौती देते हुए भी सतत सृजन कर्म में संलग्न रहे. शासन सजग रहकर उन्हें राजकीय अतिथि के नाते एम्स दिल्ली या अन्य उन्नत चिकित्सालय में भेजकर श्रेष्ठ विशेषज्ञों की सेवा उपलब्ध कराता तो वे रोग-मुक्त हो सकते थे.

१६ वर्षों से लगातार पक्षाघात (लकवा) ग्रस्त तथा शैयाशाई होने पर भी उनके मन-मष्तिष्क न केवल स्वस्थ्य-सक्रिय रहा अपितु उनमें सर्व-हितार्थ कुछ न कुछ करते रहने की अनुकरणीय वृत्ति भी बनी रही. वे लगातार न केवल अव्यवसायिक सामाजिक पत्रिका 'संपर्क' का संपादन-प्रकाशन करते रहे अपितु इसी वर्ष उन्होंने 'राम रामायण' शीर्षक लघु पुस्तक का लेखन-प्रकाशन किया था. इसमें रामायण का महत्त्व, रामायण सर्वप्रथम किसने लिखी, शंकर जी द्वारा तुलसी को रामकथा साधारण बोल-चाल की भाषा में लिखने की सलाह, जब तुलसी को हनुमानजी ने श्रीराम के दर्शन करवाये, रामकथा में हनुमानजी की उपस्थिति, सीताजी का पृथ्वी से पैदा होना, रामायण कविता नहीं मंत्र, दशरथ द्वारा कैकेयी को २ वरदान, श्री राम द्वारा श्रीभरत को अयोध्या की गद्दी सौपना, श्री भारत द्वारा कौशल्या को सती होने से रोकना, रामायण में सर्वाधिक उपेक्षित पात्र उर्मिला, सीता जी का दूसरा वनवास, रामायण में सुंदरकाण्ड, हनुमानजी द्वारा शनिदेव को रावण की कैद से मुक्त कराना, परशुराम प्रसंग की सचाई, रावण के अंतिम क्षण, लव-कुश काण्ड, सीताजी का पृथ्वी की गोद में समाना, श्री राम द्वारा बाली-वध, शूर्पनखा-प्रसंग में श्री राम द्वारा लक्ष्मण को कुँवारा कहा जाना, श्री रामेश्वरम की स्थापना, सीताजी की स्वर्ण-प्रतिमा, रावण के वंशज, राम के बंदर, कैकेई का पूर्वजन्म, मंथरा को अयोध्या में रखेजाने का उद्देश्य, मनीराम की छावनी, पशुओं के प्रति शबरी की करुणा, सीताजी का राजयोग न होना, सीताजी का रावण की पुत्री होना, विभीषण-प्रसंग, श्री राम द्वारा भाइयों में राज्य-विभाजन आदि जनरूचि के रोचक प्रसंगों का उल्लेख किया है. गागर में सागर की तरह विविध प्रसंगों को समेटे यह कृति प्रो. सहाय की जिजीविषा का पुष्ट-प्रमाण है.

प्रो. सत्यसहाय जीवंत व्यक्तित्व, कर्मठ कृतित्व तथा मौलिक मतित्व की त्रिविभूति-संपन्न ऐसे व्यक्तित्व थे जिन पर कोई भी राज्य-सत्ता गर्व कर सकती है. ग्राम रनेह (राजा नल से समबन्धित ऐतिहासिक नलेह), तहसील हटा (राजा हट्टेशाह की नगरी), जिला दमोह (रानी दमयन्ती की नगरी) में जन्में, बांदकपुर स्थित उपज्योतिर्लिंग जागेश्वरनाथ पुण्य भूमि के निवासी संपन्न-प्रतिष्ठित समाजसेवी स्व. सी.एल. श्रीवास्तव तथा धर्मपरायण स्व. महारानी देवी के कनिष्ठ पुत्र सत्यसहाय की प्राथमिक शिक्षा रनेह, ग्राम, उच्चतर माध्यमिक शिक्षा दमोह तथा महाविद्यालयीन शिक्षा इलाहाबाद में अग्रज स्व. पन्नालाल श्रीवास्तव (आपने समय के प्रखर पत्रकार, दैनिक लीडर तथा अमृत बाज़ार पत्रिका के उपसंपादक, पत्रकारिता पर महत्वपूर्ण पुस्तक के लेखक) के सानिंध्य में पूर्ण हुई. अग्रज के पद-चिन्हों पर चलते हुए पत्रकारिता के प्रति लगाव स्वाभाविक था. उनके कई लेख, रिपोर्ताज, साक्षात्कार आदि प्रकाशित हुए. वे लीडर पत्रिका के फ़िल्मी स्तम्भ के संपादक रहे. उनके द्वारा फ़िल्मी गीत-गायक स्व. मुकेश व गीता राय का साक्षात्कार बहुचर्चित हुआ.

उन्हीं दिनों महात्मा गाँधी के निजी सचिव स्व. महेशदत्त मिश्र पन्नालाल जी के साथ रहकर राजनीति शास्त्र में एम.ए. कर रहे थे. तरुण सत्यसहाय को गाँधी जी की रेलयात्रा के समय बकरीका ताज़ा दूध पहुँचाने का दायित्व मिला. गाँधी जी की रेलगाड़ी इलाहाबाद पहुँची तो भरी भीड़ के बीच छोटे कद के सत्यसहाय जी नजर नहीं आये, रेलगाड़ी रवाना होने का समय हो गया तो मिश्रजी चिंतित हुए, उन्होंने आवाज़ लगाई 'सत्य सहाय कहाँ हो? दूध लाओ.' भीड़ में घिरे सत्यसहाय जी जोर से चिल्लाये 'यहाँ हूँ' और उन्होंने दूध का डिब्बा ऊपर उठाया, लोगों ने देखा मिश्र जी डब्बा पकड़ नहीं पा रहे और रेलगाड़ी रेंगने लगी तो कुछ लम्बे लोगों ने सहाय जी को ऊपर उठाया, मिश्र जी ने लपककर डब्बा पकड़ा. बापू ने खिड़की से यह दृश्य देखा तो खिड़कीसे हाथ निकालकर उन्हें आशीर्वाद दिया. मिश्रा जी के सानिंध्य में वे अनेक नेताओं से मिले. सन १९४८ में अर्थशास्त्र में एम.ए. करने के पश्चात् नव स्वतंत्र देश का भविष्य गढ़ने और अनजाने क्षेत्रों को जानने-समझने की ललक उन्हें बिलासपुर (छत्तीसगढ़) ले आयी.

पन्नालाल जी अमृत बाज़ार पत्रिका और लीडर जैसे राष्ट्रीय अंग्रेजी अख़बारों में संवाददाता और उपसंपादक रहे थे. वे मध्य प्रान्त और विदर्भ के नेताओं को राष्ट्री क्षितिज में उभारने में ही सक्रिय नहीं रहे अपितु मध्य अंचल के तरुणों को अध्ययन और आजीविका जुटने में भी मार्गदर्शक रहे. विख्यात पुरातत्वविद राजेश्वर गुरु उनके निकट थे, जबलपुर के प्रसिद्द पत्रकार रामेश्वर गुरु को अपना सहायक बनाकर पन्नालाल जी ने संवाददाता बनाया था. कम लोग जानते हैं मध्य-प्रदेश उच्च न्यायालय के विद्वान् अधिवक्ता श्री राजेंद्र तिवारी भी प्रारंभ में प्रारंभ में पत्रकार ही थे. उन्होंने बताया कि वे स्थानीय पत्रों में लिखते थे. गुरु जी का जामाता होने के बाद वे पन्नालाल जी के संपर्क में आये तो पन्नालाल जी ने अपना टाइपराइटर उन्हें दिया तथा राष्ट्रीय अख़बारों से रिपोर्टर के रूप में जोड़ा. अपने अग्रज के घर में अंचल के युवकों को सदा आत्मीयता मिलते देख सत्य सहाय जी को भी यही विरासत मिली.

आदर्श शिक्षक तथा प्रशासनविद:

बुंदेलखंड में कहावत है 'जैसा पियो पानी, वैसी बोलो बनी, जैसा खाओ अन्न, वैसा होए मन'- सत्यसहाय जी के व्यक्तित्व में सुनार नदी के पानी साफगोई, नर्मदाजल की सी निर्मलता व गति तथा गंगाजल की पवित्रता तो थी ही बिलासपुर छत्तीसगढ़ में बसनेपर अरपा नदीकी देशजता और शिवनाथ नदीकी मिलनसारिता सोने में सुहागा की तरह मिल गई. वे स्थानीय एस.बी.आर. महाविद्यालय में अर्थशास्त्र के व्याख्याता हो गये. उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व, सरस-सटीक शिक्षण शैली, सामयिक उदाहरणों से विषय को समझाने तथा विद्यार्थी की कठिनाई को समझकर सुलझाने की प्रवृत्ति ने उन्हें सर्व-प्रिय बना दिया. जहाँ पहले छात्र अर्थशास्त्र विषय से दूर भागते थे, अब आकर्षित होने लगे. सन १९६४ तक उनका नाम स्थापित तथा प्रसिद्ध हो चुका था. इस मध्य १९५८ से १९६० तक उन्होंने नव-स्थापित 'ठाकुर छेदीलाल महाविद्यालय जांजगीर' के प्राचार्य का चुनौतीपूर्ण दायित्व सफलतापूर्वक निभाया और महाविद्यालय को सफलता की राह पर आगे बढ़ाया. उस समय शैक्षणिक दृष्टि से सर्वाधिक पिछड़े राज्य छत्तीसगढ़ में उच्च शिक्षा की दीपशिखा प्रज्वलित करनेवालों में अग्रगण्य स्व. सत्य सहाय अपनी मिसाल आप थे.जांजगीर महाविद्यालय सफलतापूर्वक चलने पर वे वापिस बिलासपुर आये तथा योजना बनाकर एक अन्य ग्रामीण कसबे खरसिया के विख्यात राजनेता-व्यवसायी स्व. लखीराम अग्रवाल प्रेरित कर महाविद्यालय स्थापित करने में जुट गये. लम्बे २५ वर्षों तक प्रांतीय सरकार से अनुदान प्राप्तकर यह महाविद्यालय शासकीय महाविद्यालय बन गया. इस मध्य प्रदेश में विविध दलों की सरकारें बनीं... लखीराम जी तत्कालीन जनसंघ से जुड़े थे किन्तु सत्यसहाय जी की समर्पणवृत्ति, सरलता, स्पष्टता तथा कुशलता के कारण यह एकमात्र महाविद्यालय था जिसे हमेशा अनुदान मिलता रहा.

उन्होंने रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर में अधिष्ठाता छात्र-कल्याण परिषद्, अधिष्ठाता महाविद्यालयीन विकास परिषद् तथा निदेशक जनजाति प्रशासनिक सेवा प्रशिक्षण के रूप में भी अपनी कर्म-कुशलता की छाप छोड़ी.
आपके विद्यार्थियों में स्व. बी.आर. यादव, स्व. राजेंद्र शुक्ल. श्री अशोक राव, श्री सत्यनारायण शर्मा आदि अविभाजित मध्यप्रदेश / छतीसगढ़ के कैबिनेट मंत्री, पुरुषोत्तम कौशिक केन्द्रीय मंत्री तथा स्व. श्रीकांत वर्मा सांसद और राष्ट्रीय राजनीति के निर्धारक रहे. अविभाजित म.प्र. के वरिष्ठ नेता स्वास्थ्य मंत्री स्व. डॉ. रामाचरण राय, शिक्षामंत्री स्व. चित्रकांत जायसवाल से उनके पारिवारिक सम्बन्ध थे. उनके अनेक विद्यार्थी उच्चतम प्रशासनिक पदों पर तथा कई कुलपति, प्राचार्य, निदेशक आदि भी हुए किन्तु सहाय जी ने कभी किसीसे नियम के विपरीत कोई कार्य नहीं कराया. अतः उन्होंने सभी से सद्भावना तथा सम्मान पाया.

सक्रिय समाज सेवी:

प्रो. सत्यसहाय समर्पित समाज सुधारक भी थे. उन्होंने छतीसगढ़ अंचल में लड़कियों को शिक्षा से दूर रखने की कुप्रथा से आगे बढ़कर संघर्ष किया. ग्रामीण अंचल में रहकर तथा सामाजिक विरोध सहकर भी उन्होंने न केवल अपनी ४ पुत्रियों को स्नातकोत्तर शिक्षा दिलाई अपितु २ पुत्रियों को महाविद्यालयीन प्राध्यापक बनने हेतु प्रोत्साहित तथा विवाहोपरांत शोधकार्य हेतु सतत प्रेरित किया. इतना ही नहीं उन्होंने अपने संपर्क के सैंकड़ों परिवारों को भी लड़कियों को पढ़ाने की प्रेरणा दी.

स्वेच्छा से सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे सामाजिक ऋण-की अदायगी करने में जुट गये. प्रादेशिक चित्रगुप्त महासभा मध्य प्रदेश के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने जबलपुर, बरमान (नरसिंहपुर), उज्जैन, दमोह, बालाघाट, बिलासपुर आदि अनेक स्थानों पर युवक-युवती, परिचय सम्मलेन, मितव्ययी दहेज़रहित सामूहिक आदर्श विवाह सम्मलेन आदि आयोजित कराये. वैवाहिक जानकारियाँ एकत्रित कर चित्राशीष जबलपुर तथा संपर्क बिलासपुर पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने अभिभावकों को उपलब्ध कराईं.
विविध काल खण्डों में सत्यसहाय जी ने लायन तथा रोटरी क्लबों के माध्यम से भी सामाजिक सेवा की अनेक योजनाओं को क्रियान्वित कर अपूर्व सदस्यतावृद्धि हेतु श्रेष्ठ गवर्नर पदक प्राप्त किये. वे जो भी कार्य करते थे दत्तचित्त होकर लक्ष्य पाने तक करते थे.

छतीसगढ़ शासन जागे :

बिलासपुर तथा छत्तीसगढ़ के विविध अंचलों में प्रो. असत्य सहाय के निधन का समाचार पाते ही शोक व्याप्त हो गया. छतीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश के अनेक महाविद्यालयों ने उनकी स्मृति में शोक प्रस्ताव पारित किये. अभियान सांस्कृतिक-साहित्यिक संस्था जबलपुर, रोटरी क्राउन जबलपुर, रोटरी क्लब बिलासपुर, रोटरी क्लब खरसिया, लायंस क्लब खरसिया, अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, सनातन कायस्थ महापरिवार मुम्बई, विक्रम महाविद्यालय उज्जैन, शासकीय महाकौशल महाविद्यालय जबलपुर, कायस्थ समाज बिलासपुर, कायस्थ कल्याण परिषद् बिलासपुर, कायस्थ सेना जबलपुर आदि ने प्रो. सत्यसहाय के निधन पर श्रैद्धांजलि व्यक्त करते हुए उन्हें युग निर्माता निरूपित किया है. छत्तीसगढ़ शासन से अपेक्षा है कि खरसिया महाविद्यालय में उनकी प्रतिमा स्थापित की जाये तथा रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर एवं गुरु घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर में अर्थशास्त्र विषयक उच्च शोध कार्यों हेतु प्रो. सत्यसहाय शोधपीठ की स्थापना की जाए.

दिव्यनर्मदा परिवार प्रो. सत्यसहाय के ब्रम्हलीन होने को शोक का कारण न मानते हुए इसे देह-धर्म के रूप में विधि के विधान के रूप में नत शिर स्वीकारते हुए संकल्प लेता है कि दिवंगत के आदर्शों के क्रियान्वयन हेतु सतत सक्रिय रहेगा. हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में विकसित करने की प्रो. सत्यसहाय की मनोकामना को मूर्तरूप देने के लिये सतत प्रयास जारी रहेंगे. आप सब इस पुनी कार्य में सहयोगी हों, यही सच्ची कर्मांजलि होगी.

**********************

प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव के प्रति भावांजलि:
तुममें जीवित था...
संजीव 'सलिल'
*
तुममें जीवित था इतिहास,
किन्तु न था युग को आभास...
*
पराधीनता के दिन देखे.
सत्याग्रह आन्दोलन लेखे..
प्रतिभा-पूरित सुत 'रनेह' के,
शत प्रसंग रोचक अनलेखे..
तुम दमोह के दीपक अनुपम
देते दिव्य उजास...
*
गंगा-विश्वनाथ मन भाये,
'छोटे' में विराट लख पाये..
अरपा नदी बिलासा माई-
छतीसगढ़ में रम harhsaaye..
कॉलेज-अर्थशास्त्र ने पाया-
नव उत्थान-विकास...
*
साक्ष्य खरसिया-जांजगीर है.
स्वस्थ रखी तुमने नजीर है..
व्याख्याता-प्राचार्य बहुगुणी
कीर्ति-विद्वता खुद नजीर है..
छात्र-कल्याण अधिष्ठाता रह-
हुए लोकप्रिय खास...
*
कार्यस्थों को राह दिखायी.
लायन-रोटरी ज्योति जलायी.
हिंद और हिन्दी के वाहक
अमिय लुटाया हो विषपायी..
अक्षय-निधि आशा-संबल था-
सार्थक किये प्रयास...
*
श्रम-विद्या की सतत साधना.
विमल वन्दना, पुण्य प्रार्थना,
तुम अशोक थे, तुम अनूप थे-
महावीर कर विपद सामना,
नेह-नर्मदा-सलिल पानकर-
हरी पीर-संत्रास...
*
कीर्ति-कथा मोहिनी अगेह की.
अर्थशास्त्र-शिक्षा विदेह सी.
सत-शिव-सुंदर की उपासना-
शब्दाक्षर आदित्य-गेह की..
किया निशा में भी उजियारा.
हर अज्ञान-तिमिर का त्रास...
*
संस्मरण बहुरंगी अनगिन,
क्या खोया?, क्या पाया? बिन-गिन..
गुप्त चित्त में चित्र चित्रगुप्त प्रभु!
कर्म-कथाएँ लिखें पल-छीन.
हरी उपेक्षित मन की पीड़ा
दिया विपुल अधरों को हास...
*
शिष्य बने जो मंत्री-शासन,
करें नीति से जन का पालन..
सत्ता जन-हित में प्रवृत्त हो-
दस दिश सुख दे सके सु-शासन..
विद्यानगर बसा सामाजिक
नायक लिये हुलास...
*
प्रखर कहानी कर्मयोग की,
आपद, श्रम साफल्य-योग की.
थी जिजीविषा तुममें अनुपम-
त्याग समर्पण कश्र-भोग की..
बुन्देली भू के सपूत हे!
फ़ैली सुरभि-सुवास...
******
प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव के प्रति गीतांजलि :

शत नमन...

*
शत नमन, हे महामानव!
शत नमन...
*
धरा से उठकर गगन पर छा गये,
स्वजन, परिजन, पुरजनों को भा गये..
कार्य में स्थित रहे कार्यस्थ हे!
काय-स्थित दैव को तुम भा गये..
हुआ है स्तब्ध यह सारा चमन...
*
अमिट प्रतिभा, अजित जीवट के धनी.
बहुमुखी सामर्थ्य, थे पक्के धुनी..
विरल देखे, अब कहाँ ऐसे सु-जन?
अनुकरण युग कर सके, वैसे गुनी..
सतत उन्नति की रही तुममें लगन...
*
दिशा-दर्शक! स्वप्न कर साकार तुम.
दे सके माटी को शत आकार तुम..
संस्कारित सकल पीढ़ी को किया-
असहमत को भी रहे स्वीकार तुम.
काश हममें भी जले ऐसी अगन...
*****
प्रो. सत्यसहाय श्रीवास्तव के प्रति शब्द-सुमनांजलि
नमन हमारे...
संजीव 'सलिल'
*
पूज्य चरण में अर्पित हैं
शत नमन हमारे...
*
मन में यादों के सुगंध है,
मिला सदा आशीष.
जितना तुमने दिया, शत गुणा
तुमको दे जगदीश.
स्वागत हेतु लगे सुरपुर में
बंदनवारे....
*
तुम भास्कर, हम हुए प्रकाशित,
हैं आभारी.
बिना तुम्हारे हैं अपूर्ण हम
हे यशधारी..
यादों का पाथेय लगाये
हमें किनारे...
*
नेक प्रेरणा दे अनेक को,
विदा हो गये.
खोज रहे हम, तुम विदेह में
लीन हो गये..
मन प्राणों को दीपित करते
कर्म तुम्हारे...
*****
प्रो सत्य सहाय श्रीवास्तव के प्रति श्रृद्धा-सुमन :
संजीव 'सलिल'
*
षट्पदी
मौत ले जाती है काया, कार्य होते हैं अमर.
ज्यों की त्यों चादर राखी, निर्मल बुन्देली पूज्यवर!
हे कलम के धनी! शिक्षादान आजीवन किया-
हरा तम अज्ञानका, जब तक जला जीवन-दिया.
धरा छतीसगढ़ की ऋण से उऋण हो सकती नहीं.
'सलिल' सेवा-साधना होती अजर मिटती नहीं..
******
चतुष्पदियाँ / मुक्तक
मन-किवाड़ पर दस्तक देता, सुधि का बंदनवार.
दीप जलाये स्मृतियों के, झिलमिल जग उजियार.
इस जग से तुम चले गये, मन से कैसे जाओगे?
धूप-छाँव में, सुख-दुःख में, सच याद बहुत आओगे..
*****
नहीं किताबी शिक्षक थे तुम, गुरुवत बाँटा ज्ञान.
शत कंकर तराशकर शंकर, गढ़े बिना अभिमान..
जीवन गीता, अनुभव रामायण के अनुपम पाठ-
श्वास-श्वास तुम रहे पढ़ाते, बन रस-निधि, रस-खान..
*****
सफल उसी का जीवन, जिसका होता सत्य-सहाय.
सत्य सहाय न हो पाये तो मानव हो निरुपाय..
जो होता निरुपाय उसीका जीवन निष्फल जान-
स्वप्न किये साकार अनेकों के, रच नव अध्याय..
******
पुण्य फले तब ही जुड़ पाया, तुमसे स्नेहिल नाता.
तुममें वाचिक परंपरा को, मूर्तित होते पाया..
जटिल शुष्क नीरस विषयों को सरस बना समझाते-
दोष-हरण सद्गुण-प्रसार के थे अनुपम व्याख्याता..
*****
तुम गये तो शून्य सा मन हो गया है.
है जगत में किन्तु लगता खो गया है..
कभी लगता आँख में आँसू नहीं हैं-
कभी लगता व्यथित हो मन रो गया है..
*****
याद तुम्हारी गीत बन रही,
जीवन की नव रीत बन रही.
हार मान हर हार ग्रहण की-
श्वास-आस अब जीत बन रही..
*****
अश्रुधारा से तुम्हें तर्पण करेंगे.
हृदय के उद्गार शत अर्पण करेंगे..
आत्म पर जब भी 'सलिल' संदेह होगा-
सुधि तुम्हारी कसौटी-दर्पण करेंगे..
*****
तुम थे तो घर-घर लगता था.
हर कण अपनापन पगता था..
पारस परस तुम्हारा पाकर-
सोया अंतर्मन जगता था..
*****
सुधियों के दोहे
सत्य सहाय सदा रहे, दो आशा-सहकार.
शांति-राज पुष्पा सके, सुषमा-कृष्ण निहार..
*
कीर्ति-किरण हनुमान की, दीप्ति इंद्र शशि सोम.
चन्द्र इंदु सत्य सुधा, माया-मुकुलित ॐ..
*
जब भी जीवन मिले कर सफल साधना हाथ.
सत-शिव सुंदर रचें पा, सत-चित-आनंद नाथ..
*
सत्य-यज्ञ में हो सके, जीवन समिधा दैव.
औरों का कुछ भलाकर, सार्थक बने सदैव..
*
कदम-कदम संघर्ष कर, सके लक्ष्य को जीत.
पूज्यपाद वर दीजिये, 'सलिल'-शत्रु हो मीत..
*
महाकाल से भी किये, बरसों दो-दो हाथ.
निज इच्छा से भू तजी, गह सुरपुर का पाथ..
*
लखी राम ने भी 'सलिल', कब आओ तुम, राह.
हमें दुखीकर तुम गये, पूरी करने चाह..
*
शिरोधार्य रह मौन हम, विधि का करें विधान.
दिल रोये, चुप हों नयन, अधर करें यश-गान..
*
सद्गुरु बिन सुर कर नहीं, पाये 'सलिल' निभाव.
बिन आवेदन चुन लिया, तुमको- मिटे अभाव..
*
देह जलाने ले गये, वे जिनसे था नेह.
जिन्हें दिखाया गेह था, करते वही-गेह..
*
आकुल-व्याकुल तन हुआ, मन है बहुत उदास.
सुरसरि को दीं अस्थियाँ, सुधियाँ अपने पास..
*
आदम की औकात है, बस मुट्ठी भर राख.
पार गगन को भी करे, तुम जैसों की साख..
*
नयन मूँदते ही दिखे, झलक तुम्हारी नित्य.
आँख खुले तो चतुर्दिक, मिलता जगत अनित्य..
*****
कविता:
विरसा
संजीव 'सलिल'
*
तुमने
विरसे में छोड़ी है
अकथ-कथा
संघर्ष-त्याग की.
हमने
जीवन-यात्रा देखी
जीवट-श्रम,
बलिदान-आग की.
आये थे अनजान बटोही
बहुतों के
श्रृद्धा भाजन हो.
शिक्षा, ज्ञान, कर्म को अर्पित
तुम सारस्वत नीराजन हो.
हम करते संकल्प
कर्म की यह मशाल
बुझ ना पायेगी.
मिली प्रेरणा
तुमसे जिसको
वह पीढ़ी जय-जय गायेगी.
प्राण-दीप जल दे उजियारा
जग ज्योतित कर
तिमिर हरेगा.
सत्य सहाय जिसे हो
वह भी-
तरह तुम्हारी लक्ष्य वरेगा.
*****
प्रो. सत्यसहाय के प्रति :
स्मृति गीत:
मन न मानता...
संजीव 'सलिल'
*
मन न मानता
चले गये हो...
*
अभी-अभी तो यहीं कहीं थे.
आँख खुली तो कहीं नहीं थे..
अंतर्मन कहता है खुदसे-
साँस-आस से
छले गये हो...
*
नेह-नर्मदा की धारा थे.
श्रम-संयम का जयकारा थे..
भावी पीढ़ी के नयनों में-
स्वप्न सदृश तुम
पले गये हो...
*
दुर्बल तन में स्वस्थ-सुदृढ़ मन.
तुम दृढ़ संकल्पों के गुंजन..
जीवन उपवन में भ्रमरों संग-
सूर्य अस्त लाख़
ढले गये हो...
*****

शनिवार, 24 जुलाई 2010

चित्रगुप्त महिमा - आचार्य संजीव 'सलिल'

चित्रगुप्त महिमा - आचार्य संजीव 'सलिल'



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चित्र-चित्र में गुप्त जो, उसको विनत प्रणाम।
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।

विधि-हरि-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।

कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।

वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, नेह नर्मदा नाद।

'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता कृपा, काम करे जो नेक।

जो काया को मानते, परमब्रम्ह का अंश।
'सलिल' वही कायस्थ हैं, ब्रम्ह-अंश-अवतंश।

निराकार परब्रम्ह का, कोई नहीं है चित्र।
चित्र गुप्त पर मूर्ति हम, गढ़ते रीति विचित्र।

निराकार ने ही सृजे, हैं सारे आकार।
सभी मूर्तियाँ उसी की, भेद करे संसार।

'कायथ' सच को जानता, सब को पूजे नित्य।
भली-भाँति उसको विदित, है असत्य भी सत्य।

अक्षर को नित पूजता, रखे कलम भी साथ।
लड़ता है अज्ञान से, झुका ज्ञान को माथ।

जाति वर्ण भाषा जगह, धंधा लिंग विचार।
भेद-भाव तज सभी हैं, कायथ को स्वीकार।

भोजन में जल के सदृश, 'कायथ' रहता लुप्त।
सुप्त न होता किन्तु वह, चित्र रखे निज गुप्त।

चित्र गुप्त रखना 'सलिल', मन्त्र न जाना भूल।
नित अक्षर-आराधना, है कायथ का मूल।

मोह-द्वेष से दूर रह, काम करे निष्काम।
चित्र गुप्त को समर्पित, काम स्वयं बेनाम।

सकल सृष्टि कायस्थ है, सत्य न जाना भूल।
परमब्रम्ह ही हैं 'सलिल', सकल सृष्टि के मूल।

अंतर में अंतर न हो, सबसे हो एकात्म।
जो जीवन को जी सके, वह 'कायथ' विश्वात्म।
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गुरुवार, 13 मई 2010

मुक्तिका: कुछ हवा दो.... --संजीव 'सलिल'


मुक्तिका:

संजीव 'सलिल'

कुछ हवा दो अधजली चिंगारियाँ फिर बुझ न जाएँ.
शोले जो दहके वतन के वास्ते फिर बुझ न जाएँ..

खुद परस्ती की सियासत बहुत कर ली, रोक दो.
लहकी हैं चिंगारियाँ फूँको कि वे फिर बुझ न जाएँ..

प्यार की, मनुहार की, इकरार की, अभिसार की 
मशालें ले फूँक दो दहशत, कहीं फिर बुझ न जाएँ..

ज़हर से उतरे ज़हर, काँटे से काँटा दो निकाल.
लपट से ऊँची लपट करना 'सलिल' फिर बुझ न जाएँ...

सब्र की हद हो गयी है, ज़ब्र की भी हद 'सलिल'
 चिताएँ उनकी जलाओ इस तरह फिर बुझ न जाएँ..
***
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

मुक्तक / चौपदे ------------'सलिल'

मुक्तक / चौपदे

 
विश्व को दीपक मिला तो, चाँदनी की चाह की.
चाँदनी ने पर कहाँ कब किसी की परवाह की..
पूर्णिमा में चाँद के सँग की 'सलिल' अठखेलियाँ-
अमावस में चाँद बेचारे ने बेबस आह की..

साहित्य की आराधना आनंद ही आनंद है.
काव्य-रस की साधना आनंद ही आनंद है.
'सलिल' सा बहते रहो, सच की शिला को फोड़कर.
रहे सुन्दर भावना आनंद ही आनंद है. 
 
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 ll नव शक संवत, आदिशक्ति का, करिए शत-शत वन्दन ll
 ll श्रम-सीकर का भारत भू को, करिए अर्पित चन्दन ll
 ll   नेह नर्मदा अवगाहन कर, सत-शिव-सुन्दर ध्यायें ll
 ll सत-चित-आनंद श्वास-श्वास जी, स्वर्ग धरा पर लायें ll
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दिल को दिल ने जब पुकारा, दिल तड़प कर रह गया.
दिल को दिल का था सहारा, दिल न कुछ कह कह गया.
दिल ने दिल पर रखा पत्थर, दिल से आँखे फेर लीं-
दिल ने दिल से दिल लगाया, दिल्लगी दिल सह गया.
 
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कर न बेगाना मुझे तू, रुसवा ख़ुद हो जाएगा.
जिस्म में से जाँ गयी तो बाकी क्या रह जाएगा?
बन समंदर तभी तो दुनिया को कुछ दे पायेगा-
पत्थरों पर 'सलिल' गिरकर व्यर्थ ही बह जाएगा.
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कौन किसी का है दुनिया में. आना-जाना खाली हाथ.
इस दरवाजे पर मय्यत है उस दरवाजे पर बारात.
सुख-दुःख धूप-छाँव दोनों में साज और सुर मौन न हो-
दिल से दिल तक जो जा पाये 'सलिल' वही सच्चे नगमात.
 
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हमने ख़ुद से करी अदावत, दुनिया से सच बोल दिया.
दोस्त बन गए दुश्मन पल में, अमृत में विष घोल दिया.
संत फकीर पादरी नेता, थे नाराज तो फ़िक्र न थी-
'सलिल' अवाम आम ने क्यों काँटों से हमको तोल दिया?
  
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मुंबई पर दावा करते थे, बम फूटे तो कहाँ गए?
उसी मांद में छुपे रहो तुम, मुंह काला कर जहाँ गए.
दिल पर राज न कर पाए, हम देश न तुमको सौंपेंगे-
नफरत  फैलानेवालों  को  हम  पैरों  से  रौंदेंगे.
 
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मुक्तक : दोस्त
 
दोस्त हैं पर दोस्ती से दूर हैं.
क्या कहें वे आँखें रहते सूर हैं.
'सलिल' दुनिया के लिए वे बोझ हैं-
किंतु अपनी ही नजर में नूर हैं.
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दोस्त हो तो दिल से दिल मिलने भी दो.
निकटता के फूल कुछ खिलने भी दो.
सफलता में साथ होते सब 'सलिल'-
राह में संग एडियाँ छिलने भी दो.
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दोस्त से ही शिकवा-शिकायत क्यों है?
दोस्त को ही हमसे अदावत क्यों है?
थाम लो हाथ तो ये दिल भी मिल ही जायेंगे-
तब ही पूछेंगे 'सलिल' हममें सखावत क्यों है?
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उफ़ ये नाज़ुक सा कलेजा, और चेहरा माहताब.
दोस्त बनकर जलाते हो जैसे निकला आफ़ताब.
आह भी भरते हैं हम तो वाह वो कहने लगे-
उनके आगे 'सलिल' जाने क्यों हुआ है लाजवाब?
 
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वादा करके भूल गए जो अपने प्यारे दोस्त वही.
समय व्यर्थ ही गवां रहे जो अपने प्यारे दोस्त वही.
'सलिल' पीठ में छुरा भोंकना और पूछना दिल का हाल-
अपनी फितरत बता रहे जो अपने प्यारे दोस्त वही.
 
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पुस्तकें मिलने-मिलाने का बहाना हो गयीं.
आए कासिद या न आए वो फसाना हो गयीं.
दूरदर्शन या कि अंतरजाल में दूरी 'सलिल'-
जो चली पुस्तक लिए वो ख़ुद निशाना हो गयी.
 
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हुस्न-ओ-इश्क की बातें न करो ऐ जानम!.
ताज में अब न मोहब्बत के फूल खिलते हैं.
बोलते बम रहे शिव जी के भक्त आज तलक-
ताज में आजकल शव और बम ही मिलते हैं.
 
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बहाते हैं जो लहू रोज़ बेकसूरों का.
लहू उनका भी रोज नालियों में बहता है.
जो टूटता है उसे फ़िर बना लेता है 'सलिल'-
जालिमों का कभी नामो-निशान न रहता है.
 
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मैं ही नहीं, तू भी तो मेरा तलबगार है.
तू जिसका प्यार है, वही तेरा भी प्यार है.
गर सच नहीं तो जिंदगी की धार मोड़ दे-
तुझको न चाहे जो उसे तू हँस के छोड़ दे.
 
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न आँसू बहाओ, न नज़रें झुकाओ.
गमे-इश्क को हँस के दिल से लगाओ.
जो चाहा न पाया, 'सलिल' इसका गम क्यों?
जो पाया है उसकी खुशी तो मनाओ.
 
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जलाओ शमा, रात सारी जगो तुम.
सितारों से आगे हमेशा रहो तुम.
खुदा की है नेमत 'सलिल' साँस तेरी-
मोहब्बत हमेशा उसी से करो तुम.
 
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जो बेकस हैं, उनको गले से लगाओ.
हैं नादां जो, उनको भी दाना बनाओ.
न जीने का मकसद बतायेगा कोई-
'सलिल' ख़ुद ही औरों के तुम काम आओ.
 
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जिसकी बाँहों में रहे तू, जो तेरी बाँहों में हो.
यह जरूरी तो नहीं है वो तेरी चाहों में हो.
मंजिलें हों कहीं भी, हरगिज न छोडेंगे 'सलिल'-
यह जरूरी तो नहीं मंजिल तेरी राहों में हो.
 
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न सूरज या चंदा मुझे तुम बनाते.
सितारों सा मंदा मुझे क्यों बताते.
दुआ दे रहे तो भी कंजूसी करके-
'सलिल' यार सच्चे ही ऐसे सताते.
 
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ख्वाब में आती रहो तुम सच में मत आना.
वस्ल के सपने दिखा गाती रहो गाना.
दाल-रोटी कमाने में प्यार होगा गुम-
'सलिल' रहकर दूर ही तुम मन मेरे भाना
 
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लम्हा-लम्हा याद तुम्हारी, गम को दूर हटाती है.
खुशबू अगरबत्तियों की ज्यों, सांसों को महकाती है.
जग ने चाहा भूलूँ तुमको, बरबस याद आ रही हो-
'सलिल' थपकियाँ दे बच्चे को माँ ही गोद खिलाती है.
 
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पास रहीं तो तनिक न सोचा, कभी दूर हो जाओगी.
दूर गयीं तो क्या मालूम था और निकट हो जाओगी.
माँ तुम बिन मैं हुआ अधूरा, दुनिया लगती बेमानी.
बस इतना ही मुझे बता दो कैसे-कब मिल पाओगी?
 
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पहले बेहद मन भाती थी लेकिन अब चुभती है धूप.
हुस्न-इश्क रुचते थे पहले लेकिन अब न सुहाता रूप.
याद तुम्हारी बतलाती है, मैं अब निपट अकेला हूँ-
रंक हुआ है 'सलिल' बिचारा, माँ के आँचल में था भूप.
 
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मुझे तुझसे मिलने की सजा, जब जो मिलेगी कुबूल है.
तेरी रहगुजर का शूल हर मुझे लग रहा है कि फूल है,
तन दो हमारे भले ही हों पर मन 'सलिल'  हैं एक ही-
जुदा हमको करना जो चाहते, नहीं जानते कि भूल है.
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अपने सपने पूरे होंगे साथ मेरा तुम दो न दो
या सुख-दुःख में साथ रहो या दरवाजे से रुखसत हो.
कोशिश के शैदाई हैं हम नहीं नतीजों की चिंता-
ऊपरवाले! आख़िर दम तक नहीं 'सलिल' को फुर्सत हो.

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बेवफाई का गिला तज, ख़ुद वफ़ा पहले करो.
फ़िक्र नुकसानों की छोडो, कुछ नफा पहले करो.
'सलिल' कोशिश पर भरोसा करो मत पीछे हटो-
शक-शुबह, शिकवे-शिकायत को दफा पहले करो.
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इंसां है तो डूब रहा क्यों? अपनी मन-मर्जी से तैर.
नहीं किसी से व्यर्थ दोस्ती, नहीं किसी से नाहक बैर.
भाग्य विधाता है तू अपना, हाथों से लिख दे तकदीर-
तेरे दुश्मन तुझसे माँगें अपनी-अपनी जां की खैर. 
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नदी वही जो प्यास बुझाये, बिना मोल देकर पानी.
वतन वही जो गले लगाये,  माफ़ कर सके नादानी.
पंछी वह जो ख़ुद भूखा रह भरता है चूजों का पेट-
'सलिल' सिर्फ़ इंसान बना रह, हर इंसां है लासानी.
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अंधेरों का-उजालों का मेल होती जिंदगी.
खुशी-गम का सिलसिला है खेल होती जिंदगी.
कभी रुकती ही नहीं है. यह निरंतर चल रही-
'सलिल' हे पल नयेपन का मेल होती जिंदगी.
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तू अपनी तकदीर बदल दे, मौसम की कुछ फ़िक्र न कर.
जो जाकर फ़िर लौट न आयें, ऐसों को तू मित्र न कर.
साथ छोड़ दे अँधियारे में जो वह साया होता है-
'सलिल' साथ कर इंसानों का, परछाईं की फ़िक्र न कर.
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खन-खन, छम-छम तेरी आहट, हर पल चुप रह सुनता हूँ.
आँख मूँदकर, अनजाने ही तेरे सपने बुनता हूँ.
छिपी कहाँ है मंजिल मेरी, आकर झलक दिखा दे तू-
'सलिल' नशेमन तेरा, तेरी खातिर तिनके चुनता हूँ.
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बादलों की ओट में महताब लगता इस तरह
छिपी हो घूँघट में ज्यों संकुचाई शर्मीली दुल्हन.
पवन सैयां आ उठाये हौले-हौले आवरण-
'सलिल' में प्रतिबिम्ब देखे, निष्पलक होकर मगन.
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भर रंग-गुलाल, उठा लियो थाल, चले बृज ग्वाल, सुनावत फागें.
आकुल व्याकुल श्याम 'सलिल' संग, दाऊ-कन्हैया को कर आगे.
गुपियन लै पिचकारी चलावें, रोके रुकें नहीं, धूम मचावैं.
युग्म लखें विधि-हरि-हर औचक, नारद नाचें, वीणा सुनावें.
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जो दूर रहते हैं वही तो पास होते हैं.
जो हँस रहे, सचमुच वही उदास होते हैं.
सब कुछ मिला 'सलिल' जिन्हें अतृप्त हैं वहीं-
जो प्यास को लें जीत वे मधुमास होते हैं.
पग चल रहे जो वे सफल प्रयास होते हैं
न थके रुक-झुककर वही हुलास होते हैं.
चीरते जो सघन तिमिर को सतत 'सलिल'-
वे दीप ही आशाओं की उजास होते है.
जो डिगें न तिल भर वही विश्वास होते हैं.
जो साथ न छोडें वही तो खास होते हैं.
जो जानते सीमा, 'सलिल' कह रहा है सच देव!
वे साधना-साफल्य का इतिहास होते हैं  

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भावनाओं औ' कामनाओं का जब-जब हाथ मिला.
तब-तब ही मन के उपवन में कविता-सुमन खिला.
दिग्-दिगंत को किया सुवासित, चहक रहे मन-प्राण.
'सलिल' महक ने आस-प्यास को पल में दिया मिला.
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स्वाधीनता दिवस पर-
मुक्तक
आचार्य संजीव 'सलिल'
भारत माता मुक्तिदायिनी गोदी में भगवान खिलाती.
लोरी सुना राम-कान्हा को, प्रेमपूर्वक शयन कराती.
अगणित संतानें सब जग में 'वन्दे मातरम' बोल रही हैं-
स्वर्ग से सुन्दर बाँकी-झाँकी, अँखियाँ देख धन्य हो जातीं..
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देश इष्ट ईमान धर्म रब देव खुदा ईश्वर है अपना.
पथ पग पथिक लक्ष्य साधन शुचि, साध्य-साधना, सच औ' सपना.
श्वास-आस-परिहास, हर्ष-दुःख, मिलन-विरह वात्सल्य-भक्ति भी.
देश-प्रेम को नाप सके जो 'सलिल' न जग में अब तक नपना.
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लेश न संशय शेष, देश हित जीना ही अपनी परिपाटी.
नेत्रहीन होकर भी शर-धनु ले दुश्मन की गर्दन काटी.
सवा लाख से एक लड़े पर हार न हमने रण में मानी-
सबल-प्रबल अरिदल ने बारंबार समर में धूलि चाटी.
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जब हम आपस में टकराए, तभी शत्रु ने लाभ उठाया.
बार-बार जीता-छोडा पर उसने मौका नहीं गँवाया.
आँख फोड़कर क़ैद किया, भारत माता को रौंदा-लूटा.
जब-जब एक हुए अरि हारा, पद तल मस्तक विवश झुकाया..
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नीति धर्म सत् शील न त्यागा, प्राण  दिए पर तजा नहीं रण.
घास-तृणों की रोटी खायी, किंतु निभाया था अपना प्रण.
सिरहाने पर सांप सदृश भय अरि को होता देख स्वप्न में-
देख प्रताप शक्ति थर्राता था दिल्लीश्वर अकबर प्रति क्षण.
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निज गृह के अंतर्विरोध मिल-बैठ हमें सुलझाने होंगे.
जन-हितकारी नियम-कायदे बना काम में लाने होंगे.
काँटे-कंकर बीन बाग़ से, श्रम-सीकर से करें सिंचाई-
कैक्टस हटा नीम-तुलसी के बिरवे हमें लगाने होंगे..
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मातृभूमि की रज-चन्दन का, मस्तक तिलक लगाना होगा.
मातृभूमि की चरण-वन्दना कर जन-गण-मन गाना होगा.
मजहब, पन्थ, रिलीजन कुछ हो, राष्ट्र-धर्म अपनाना होगा-
राष्ट्र हेतु निज प्राण दाँव पर लगा शीश कटवाना होगा..
rachnakar
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स्वाधीनता दिवस पर-
मुक्तक
आचार्य संजीव 'सलिल'
राष्ट्र जमीं का महज न टुकडा, यह आस्था-विश्वास हमारा.
तीर्थ, धर्म, मंदिर, मस्जिद, मठ, गिरजा, देवालय, गुरुद्वारा.
भाषा-भूषा-भेष भिन्न हैं, लेकिन ह्रदय भिन्न मत मानो-
कोटि-कोटि हम मात्र एक हैं, 'जय भारत माँ' सबका नारा.
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सत्ता और सियासत केवल साधन, साध्य न इनको मानो.
जनहित-राष्ट्रोत्थान एक ही लक्ष्य अटल अपना पहचानो. .
संसद और विधानसभा में वाग्वीर जो पहुँच गए हैं-
ठुकरा उनको, जन-सेवक चुन, जनगण की जय निश्चय जानो..
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देव, खुदा, रब, गौड, ईश्वर,  गुरु, ऋषि भारत की संतान.
भारत जग में सबसे ज्यादा पावन, सबसे अधिक महान.
मंत्र, ऋचाएँ, श्लोक, आरती, आयत, प्रेयर औ' अरदास.
वन्दन-अर्चन करें राष्ट्र का, 'सलिल' सतत का र्गौरव गान.
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संसद मंदिर लोकतंत्र का, हुल्लड़ जनगण का उपहास.
चला गोलियां मानव-द्रोही फैलाते नृशंस संत्रास.
मूक रहे गर इन्हें न रोका, तो अपराधी हम होंगे-
'सलिल' सत्य यह, क्षमा न हमको देगा किंचित भी इतिहास.
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'बाजी लगा जान की, रोको आतंकी-हत्यारों को.
असफल हुआ सुरक्षा बल, क्यों मारा ना गद्दारों को?'
कहते जो नेता, सेना में निज बेटे पहले भेजें-
देश बचाते जान गँवाकर, नमन सिपहसालारों को..
anubhooti
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ज़िंदगी में इतनी भी जगमगाहट न हो
अँधेरा जब आये तो आहट न हो.
अँधेरे उजालों में तब्दील हों-
केवल उजालों की चाहत न हो..
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हरेक दिल की बयानी है.
सुबह लगती सुहानी है.
साँझ होती हसीं-दिलकश-
निशा पुरनम कहानी है..
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समय बदला तो समय के साथ ही प्रतिमान बदले.
प्रीत तो बदली नहीं पर प्रीत के अनुगान बदले.
हैं वही अरमान मन में, है वही मुस्कान लब पर-
वही सुर हैं वही सरगम 'सलिल' लेकिन गान बदले..

रूप हो तुम रंग हो तुम सच कहूँ रस धार हो तुम.
आरसी तुम हो नियति की प्रकृति का श्रृंगार हो तुम..
भूल जाऊँ क्यों न खुद को जब तेरा दीदार पाऊँ-
'सलिल' लहरों में समाहित प्रिये कलकल-धार हो तुम..

नारी ही नारी को रोके इस दुनिया में आने से.
क्या होगा कानून बनाकर खुद को ही भरमाने से?.
दिल-दिमाग बदल सकें गर, मान्यताएँ भी हम बदलें-
'सलिल' ज़िंदगी तभी हँसेगी, क्या होगा पछताने से?
*
ममता को समता के पलड़े में कैसे हम तौल सकेंगे.
मासूमों से कानूनों की परिभाषा क्या बोल सकेंगे?
जिन्हें चाहिए लाड-प्यार की सरस हवा के शीतल झोंके-
'सलिल' सिर्फ सुविधा देकर साँसों में मिसरी घोल सकेंगे?
*
मौन वह कहता जिसे आवाज कह पाती नहीं.
क्या क्षितिज से उषा-संध्या मौन हो गाती नहीं.
शोरगुल से शीघ्र ही मन ऊब जाता है 'सलिल'-
निशा जो स्तब्ध हो तो क्या तुम्हें भाती नहीं?
*
इन्तिज़ार को मिला है इन्तिज़ार ही.
मेहनत का सिला मिला है कुछ-कुछ उधार भी.
फूलों की थी तलाश भले शूल ही मिले-
कुछ बिन किये 'सलिल' क्यों आशा बहार की?

खतरा बड़ा या खतरी इसे कौन बताये.
सब शोक हर अशोक से किस्मत ही मिलाये.
हर जीव जो संकेत समझ ले वही संजीव-
जो 'सलिल' वो मुट्ठी में कहो किस तरह आये?

दिल लगाकर दिल्लगी हमने न की.
दिल जलाकर बंदगी तुमने न की..
दिल दिया ना दिला लिया, बस बात की-
दिल दुखाया सबने हमने उफ़ न की..

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

सूचना : चित्रांश संजीव 'सलिल' बिलासपुर में

राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चित्रांश संजीव वर्मा 'सलिल' ११-से १४ अप्रैल तक बिलासपुर छतीसगढ़ में हैं. वे सामाजिक एकता, चिट्ठाकारी  के विकास तथा साहित्यिक आयोजनों में सहभागिता करेंगे. इच्छुक जन निम्न पाते पर संपर्क करें: द्वारा: प्रो. सत्य सहाय, ७३ गायत्री मर्ग, विद्या नगर, बिलासपुर चलभाष: ०९४२५१८३२४४.

लिमटी खरे को 'संवाद सम्मान '

लिमटी खरे को 'संवाद सम्मान '
(शुक्रवार /09 अप्रैल 2010 / नई दिल्ली / मीडिया मंच )
 

चिट्ठाकारी सामाजिक चेतना को नए आयाम देने का कार्य अहर्निश कर रही है. सामाजिक चेतना के इस नए संसाधन का प्रभावी और लोकप्रिय उपयोग करना सबके बस का रोग नहीं है. इस दुकर कार्य को सहजता से करनेवालों में  पहना नाम है श्री लिमटी खरे का । खरे जी  की सक्रियता चिट्ठा  जगत में किसी से छिपी नहीं है। वे सामाजिक विषयों पर अपने धुंआधार लेखन के लिए जाने जाते हैं। पेशे से लिमटी जी एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और अपने ब्लॉग 'रोजनामचा ' में दुनिया भर की खबरे लिया और दिया करते हैं। लेकिन इसके साथ ही साथ वे 'नुक्कड़ ',  'आमजन की खबरें ' और 'पहाड़ी की धूम ' आदि ब्लॉगों पर भी अपना सक्रिय योगदान करते रहते हैं। वे कायस्थ सभा के सक्रिय कार्यकर्ता भी रहे हैं । सम्वाद सम्मान मिलने पर हम सबकी ओर से उनका हार्दिक अभिनन्दन

शनिवार, 6 मार्च 2010

नर्मदा नामावली: --आचार्य संजीव 'सलिल'

नर्मदा नामावली

आचार्य संजीव 'सलिल'

पुण्यतोया सदानीरा नर्मदा.
शैलजा गिरिजा अनिंद्या वर्मदा.
शैलपुत्री सोमतनया निर्मला.
अमरकंटी शांकरी शुभ शर्मदा.
आदिकन्या चिरकुमारी पावनी.
जलधिगामिनी चित्रकूटा पद्मजा.
विमलहृदया क्षमादात्री कौतुकी.
कमलनयनी जगज्जननि हर्म्यदा.
शाशिसुता रौद्रा विनोदिनी नीरजा.
मक्रवाहिनी ह्लादिनी सौंदर्यदा.
शारदा वरदा सुफलदा अन्नदा.
नेत्रवर्धिनि पापहारिणी धर्मदा.
सिन्धु सीता गौतमी सोमात्मजा.
रूपदा सौदामिनी सुख-सौख्यदा.
शिखरिणी नेत्रा तरंगिणी मेखला.
नीलवासिनी दिव्यरूपा कर्मदा.
बालुकावाहिनी दशार्णा रंजना.
विपाशा मन्दाकिनी चित्रोंत्पला.
रुद्रदेहा अनुसूया पय-अंबुजा.
सप्तगंगा समीरा जय-विजयदा.
अमृता कलकल निनादिनी निर्भरा.
शाम्भवी सोमोद्भवा स्वेदोद्भवा.
चन्दना शिव-आत्मजा सागर-प्रिया.
वायुवाहिनी कामिनी आनंददा.
मुरदला मुरला त्रिकूटा अंजना.
नंदना नाम्माडिअस भव मुक्तिदा.
शैलकन्या शैलजायी सुरूपा.
विपथगा विदशा सुकन्या भूषिता.
गतिमयी क्षिप्रा शिवा मेकलसुता.
मतिमयी मन्मथजयी लावण्यदा.
रतिमयी उन्मादिनी वैराग्यदा.
यतिमयी भवत्यागिनी शिववीर्यदा.
दिव्यरूपा तारिणी भयहांरिणी.
महार्णवा कमला निशंका मोक्षदा.
अम्ब रेवा करभ कालिंदी शुभा.
कृपा तमसा शिवज सुरसा मर्मदा.
तारिणी वरदायिनी नीलोत्पला.
क्षमा यमुना मेकला यश-कीर्तिदा.
साधना संजीवनी सुख-शांतिदा.
सलिल-इष्ट माँ भवानी नरमदा.

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गुरुवार, 4 मार्च 2010

मुक्तक / चौपदे: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

मुक्तक / चौपदे

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / संजिव्सलिल.ब्लॉग.सीओ.इन
सलिल.संजीव@जीमेल.com

साहित्य की आराधना आनंद ही आनंद है.
काव्य-रस की साधना आनंद ही आनंद है.
'सलिल' सा बहते रहो, सच की शिला को फोड़कर.
रहे सुन्दर भावना आनंद ही आनंद है.

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ll नव शक संवत, आदिशक्ति का, करिए शत-शत वन्दन ll
ll श्रम-सीकर का भारत भू को, करिए अर्पित चन्दन ll
ll नेह नर्मदा अवगाहन कर, सत-शिव-सुन्दर ध्यायें ll
ll सत-चित-आनंद श्वास-श्वास जी, स्वर्ग धरा पर लायें ll
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दिल को दिल ने जब पुकारा, दिल तड़प कर रह गया.
दिल को दिल का था सहारा, दिल न कुछ कह कह गया.
दिल ने दिल पर रखा पत्थर, दिल से आँखे फेर लीं-
दिल ने दिल से दिल लगाया, दिल्लगी दिल सह गया.

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कर न बेगाना मुझे तू, रुसवा ख़ुद हो जाएगा.
जिस्म में से जाँ गयी तो बाकी क्या रह जाएगा?
बन समंदर तभी तो दुनिया को कुछ दे पायेगा-
पत्थरों पर 'सलिल' गिरकर व्यर्थ ही बह जाएगा.
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कौन किसी का है दुनिया में. आना-जाना खाली हाथ.
इस दरवाजे पर मय्यत है उस दरवाजे पर बारात.
सुख-दुःख धूप-छाँव दोनों में साज और सुर मौन न हो-
दिल से दिल तक जो जा पाये 'सलिल' वही सच्चे नगमात.
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शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

'गोत्र' तथा 'अल्ल'


'गोत्र' तथा 'अल्ल'

'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे भी पूछे जाते हैं.

स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था. इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ. ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए. इसी कारण विभिन्न जातियों में एक ही गोत्र मिलता है चूंकि ऋषि के पास विविध जाति के शिष्य अध्ययन करते थे. आज कल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रोबेर्त्सों कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए. आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं. शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे. अतः, उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था. 

एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं. 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से सम्बंधित होता है. एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित मन जाता है किन्तु आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते. हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं. हमारी अगर'' 'उमरे' है. मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति मिला है. मेरे फूफा जी की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है. उनके पूर्वज बैरकपुर से नागपुर जा बसे.

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

एक चर्चा चैट पर: डॉ. नील कमल सक्सेना-संजीव वर्मा 'सलिल'

एक चर्चा चैट पर:


चर्चाकार: डॉ. नील कमल सक्सेना-संजीव वर्मा 'सलिल'


Dr: : vermaji namaskar

मैं: jaichitrgupt ji ki.

Dr: AAP JABALPUR ME KYA KAM KARTE HAI

मैं: SDO PWD

Dr: aap ke profile se lagta he aap ek good poet and imotional person है

मैं: aap sahee hain.

Dr: i am vet dr in raj govt

मैं: aapse parichit hokar prasannata huee.

Dr: i am very thankful u to make me ur friend

मैं: chitt-chitt men gupt hain, chitrgupt bhagvan.
sakal srishti kayasth hai, jad-chetan asntan

Dr: mujhe kisi bhi kayastha person se bat kerna acha lagta hai

Dr: mere pas aap jitna gyan dhyan to hai nahi, phir bhi apne chitrgupt bansaj hone per proud hai

मैं: दुनिया में ऐसा कोई नहीं है जो कायस्थ नहीं हो. 'काया स्थितः सह कायस्थः' जिसकी काया में 'वह' (परमपिता परम्ब्रम्ह) स्थित हो वह कायस्थ है.. '

Dr: how we can sepret us from them

मैं: हम अन्यों से भिन्न नहीं हैं, वे हमारे समान हैं यही तो हमारी विशेषता है. हर नदी एक-दूसरे से अलग होती है. सागर सबसे मिलके बनता है पर किसी के जैसा नहीं होता वह सबसे भिन्न होता है पर सभी नदियाँ सागर से अलग होकर भी सागर का ही प्रतिरूप होती हैं.

Dr: pata nahi kyon me aap se sahamat nahi

मैं: जिस तरह कमल जल में होकर भी जल से बाहर होता है उसी तरह कायस्थ भी सबसे जुदा होकर भी
सबके साथ होता है.
डॉ; मैं आपसे सहमत नहीं.
मैं: बचपन से जो सुनते-देखते आये हैं उससे मुक्त हो पाना सहज नहीं होता. मुझे सत्य की प्रतीति होने में ३० वर्ष लगे.

मैं: ऐसा न होता तो चित्रगुप्त जी के ऐसे दो विवाहों की कल्पना क्यों होती जो अंतरजातीय, अन्तरभाषीय, अंतरदेशीय हैं.
Dr: go more detaile

मैं: 'कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात.' का आशय यही तो है कि कायस्थ सबका मूल है.

मैं: कायस्थ वट वृक्ष है जिसकी शाखाएं और पत्तियां अन्य सभी हैं.

Dr: aap ye to nahi kahna chah rahe ki KAYA ME AATMA KAYASTH
11:31 PM बजे गुरुवार को प्रेषित
मैं: आप सत्य के निकट आ रहे हैं. परमात्मा निराकार ( आकार रहित अर्थात जिसका चित्र गुप्त है) है. उसका कोई अंश जब किसी काया में स्थित होता है तो कायस्थ होता है, यह अंश निकलते ही काया मिट्टी (निर्जीव) हो जाती है.

Dr: ye baat kitne log maante hai

मैं: मनु ने रूपक में कहा है कि ब्रम्हा के मुँह से ब्रम्हां, उदर से वैश्य, बाहू से क्षत्रिय और पैर से शूद्र उत्पन्न हुए. कायस्थ कहाँ से आये? कायस्थ अंश नहीं समग्र हैं. कहा गया है कि वे ब्रम्हा की समूची काया से आये. फिर वे सबसे श्रेष्ठ और सबके मूल हुए या नहीं?
सत्य को लोग न जानें या न मानें तो क्या सत्य बेमानी हो जायेगा?

Dr: phir do shaadi ki kalpna kyon .., bo bhi anterjaatya

Dr: anterdesiey to theek ,apne des में

मैं: परमब्रम्ह निर्विकार है, वह आदि पुरुष है. वह सृजन नहीं करता, सृजन हेतु परा-प्रकृति की सहभागिता जरूरी है. पृकृति ही पुरुष की शक्ति है. 'शिवा' के बिना 'शिव' केवल 'शव' रह जाते हैं. दो माताएं आधिदैविक तथा आधिभौतिक शक्तियों की प्रतीक हैं.
आपके मत की प्रतीक्षा है.


Dr: to pahle shiv aaye ya brahma


मैं: सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं, इसे धर्म और विज्ञानं दोंनो मानते हैं. हर ब्रम्हांड का अलग-अलग ब्रम्हा-विष्णु-महेश हैं जो सृजन-पालन और विनाश करते हैं. चित्रगुप्त एकमात्र हैं जो सबके कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं.


मैं: shesh fir kabhee...ab neend aa rahee hai. shubh ratri...
Dr: ok good nt

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सोमवार, 25 जनवरी 2010

गणतंत्र दिवस पर विशेष गीत:



सारा का सारा हिंदी है

आचार्य संजीव 'सलिल'

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जो कुछ भी इस देश में है, सारा का सारा हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


मणिपुरी, कथकली, भरतनाट्यम, कुचपुडी, गरबा अपना है.

लेजिम, भंगड़ा, राई, डांडिया हर नूपुर का सपना है.

गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा, चनाब, सोन, चम्बल,

ब्रम्हपुत्र, झेलम, रावी अठखेली करती हैं प्रति पल.

लहर-लहर जयगान गुंजाये, हिंद में है और हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा सबमें प्रभु एक समान.

प्यार लुटाओ जितना, उतना पाओ औरों से सम्मान.

स्नेह-सलिल में नित्य नहाकर, निर्माणों के दीप जलाकर.

बाधा, संकट, संघर्षों को गले लगाओ नित मुस्काकर.

पवन, वन्हि, जल, थल, नभ पावन, कण-कण तीरथ, हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


जै-जैवन्ती, भीमपलासी, मालकौंस, ठुमरी, गांधार.

गजल, गीत, कविता, छंदों से छलक रहा है प्यार अपार.

अरावली, सतपुडा, हिमालय, मैकल, विन्ध्य, उत्तुंग शिखर.

ठहरे-ठहरे गाँव हमारे, आपाधापी लिए शहर.

कुटी, महल, अँगना, चौबारा, हर घर-द्वारा हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


सरसों, मका, बाजरा, चाँवल, गेहूँ, अरहर, मूँग, चना.

झुका किसी का मस्तक नीचे, 'सलिल' किसी का शीश तना.

कीर्तन, प्रेयर, सबद, प्रार्थना, बाईबिल, गीता, ग्रंथ, कुरान.

गौतम, गाँधी, नानक, अकबर, महावीर, शिव, राम महान.

रास कृष्ण का, तांडव शिव का, लास्य-हास्य सब हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....


ट्राम्बे, भाखरा, भेल, भिलाई, हरिकोटा, पोकरण रतन.

आर्यभट्ट, एपल, रोहिणी के पीछे अगणित छिपे जतन.

शिवा, प्रताप, सुभाष, भगत, रैदास कबीरा, मीरा, सूर.

तुलसी. चिश्ती, नामदेव, रामानुज लाये खुदाई नूर.

रमण, रवींद्र, विनोबा, नेहरु, जयप्रकाश भी हिंदी है.

हर हिंदी भारत माँ के माथे की उज्जवल बिंदी है....

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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

शुभ कामनाएं सभी को.. -संजीव "सलिल"

गीत: 

शुभ कामनाएं सभी को...

संजीव "सलिल"

salil.sanjiv@gmail.com
divyanarmada.blogspot.com


शुभकामनायें सभी को, आगत नवोदित साल की.नव वर्ष

शुभ की करें सब साधना,चाहत समय खुशहाल की..

शुभ 'सत्य' होता स्मरण कर, आत्म अवलोकन करें.

शुभ प्राप्य तब जब स्वेद-सीकर राष्ट्र को अर्पण करें..

शुभ 'शिव' बना, हमको गरल के पान की सामर्थ्य दे.

शुभ सृजन कर, कंकर से शंकर, भारती को अर्ध्य दें..

शुभ वही 'सुन्दर' जो जनगण को मृदुल मुस्कान दे.

शुभ वही स्वर, कंठ हर अवरुद्ध को जो ज्ञान दे..

शुभ तंत्र 'जन' का तभी जब हर आँख को अपना मिले.

शुभ तंत्र 'गण' का तभी जब साकार हर सपना मिले..

शुभ तंत्र वह जिसमें, 'प्रजा' राजा बने, चाकर नहीं.

शुभ तंत्र रच दे 'लोक' नव, मिलकर- मदद पाकर नहीं..

शुभ चेतना की वंदना, दायित्व को पहचान लें.

शुभ जागृति की प्रार्थना, कर्त्तव्य को सम्मान दें..

शुभ अर्चना अधिकार की, होकर विनत दे प्यार लें.

शुभ भावना बलिदान की, दुश्मन को फिर ललकार दें..

शुभ वर्ष नव आओ! मिली निर्माण की आशा नयी.

शुभ काल की जयकार हो, पुष्पा सके भाषा नयी..

शुभ किरण की सुषमा, बने 'मावस भी पूनम अब 'सलिल'.

शुभ वरण राजिव-चरण धर, क्षिप्रा बने जनमत विमल..

शुभ मंजुला आभा उषा, विधि भारती की आरती.

शुभ कीर्ति मोहिनी दीप्तिमय, संध्या-निशा उतारती..

शुभ नर्मदा है नेह की, अवगाह देह विदेह हो.

शुभ वर्मदा कर गेह की, किंचित नहीं संदेह हो..

शुभ 'सत-चित-आनंद' है, शुभ नाद लय स्वर छंद है.

शुभ साम-ऋग-यजु-अथर्वद, वैराग-राग अमंद है..

शुभ करें अंकित काल के इस पृष्ट पर, मिलकर सभी.

शुभ रहे वन्दित कल न कल, पर आज इस पल औ' अभी..

शुभ मन्त्र का गायन- अजर अक्षर अमर कविता करे.

शुभ यंत्र यह स्वाधीनता का, 'सलिल' जन-मंगल वरे..

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